भारत के राजनीतिक क्षितिज पर महात्मा गांधी के उदय के पूर्व तक अंग्रेजी का वर्चस्व था। अंग्रेजी बोलना प्रतिष्ठा पूर्ण समझा जाता था। थोड़ी सी अंग्रेजी क्या सीख ली, हमारा शिक्षित भारतीय अपनी मातृभाषा को हेय मानने लगता था। यहां तक कि मित्रों एवं परिजनों को भी अंग्रेजी में ही पत्र लिखता और ऐसा करने में गर्व और गौरव का अनुभव करता था। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व वर्ग भी अपने को अंग्रेजी मोह से मुक्त नहीं कर पाया था। गांधीजी ने इस सारे क्रम को बिल्कुल उलट दिया। सागर की लहरों पर से उतरकर भारतीय जमीन पर गांधी ने जब कदम रखे तो उनका मन ही नहीं, तन पर का लिबास भी ठेठ स्वदेशी था। कठियावाड़ी, पोशाक पहने मोहनदास करमचंद गांधी ने अपनी हर स्वागत-सभा में जो भी कहा, गुजाराती में कहा या फिर हिंदी में। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने निज भाषा को उन्नति का मूल माना था, उनके ह्दय की पीड़ा अपनी भाषा के ज्ञान से ही मिटती थी। दक्षिण अफ्रीका से ही वे हिन्द स्वराज और उस हेतु जरूरी राष्ट्रीय एकता के विचार की राष्ट्रभाषा कौन-सी होगी, यह भी वे तय कर चुके थे। हिन्द स्वराज में वे साफ बता चुके थे -हिन्दुस्तान की भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी है, वह आपको सीखनी होगी। दक्षिण अफ्रीका से भारत पहुंचते ही गांधीजी ने हिंदी और आगे चलकर हिंदी-हिन्दुस्तानी का नारा बुलंद किया। यदि एक वर्ष के अंदर आप हिंदी न सीख लेंगे, तो आपको मेरा भाषण अंग्रेजी में सुनने को नहीं मिलेगा-यह साफ चेतावनी उन्होंने लखनउ-कांग्रेस के समय दे दी थी। लखनउ में 1916 में संपन्न एक लिपि सम्मेलन में उन्होंने कहा-मैं गुजरात से आता हूं। मेरी हिंदी टूटी-फूटी है -मैं उसी में आपसे बोलता हूं, क्योंकि थोड़ी अंग्रेजी बोलने में मुझे ऐसा मालूम होता है, मानो मुझे इस से पाप लगता है। आपको हिंदी का गौरव बनाने की जरूरत नहीं है। वायसराय ने जो युद्ध परिषद की बैठक बुलायी थी उसमें गांधी ही थे, जो हिंदी में ही बोले थे। एक सभा में तो वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को उलाहना देने से नहीं हिचके, जिसमें तिलक ने अंग्रेजी में भाषण दिया था। गांधीजी ने कहा-लोकमान्य तिलक यदि हिंदी में बोलते तो बड़ा लाभ होता। लॉर्ड डफरिन तथा लेडी चेम्सफोर्ड की भांति तिलक महाराज को भी हिंदी सीखने का प्रयत्न करना चाहिए। रानी विक्टोरिया ने भी हिंदी सीखी थी। पंडित मालवीयजी से मेरी अर्जी है कि यदि वे कोशिश करें, तो अगले वर्ष अन्य किसी भी भाषा में कांग्रेस के व्याख्यान न हों। मेरा यह उलाहना है कि कल वे कांग्रेस में हिन्दी में क्यों नहीं बोले। गांधीजी के कहने का असर भी हुआ और अगले दिन तिलक ने अपना भाषण हिंदी में ही दिया। ऐसा ही उलाहना उन्होंने, पं. मदनमोहन मालवीय को भी दिया था। श्रीमती जिन्ना तक को उन्होंने लिखा था कि वे खुद मात़भाषा में बोला करें और जिन्ना साहब को भी ऐसी प्रेरणा दें। गांधीजी जान रहे थे कि श्रोताओं पर हिंदी में बोलने का गहरा प्रभाव पड़ता है और आपका संदेश उन तक सीधा और स्पष्ट पहुंचता है। फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया -में गत दिसंबर में कांग्रेस के अधिवेशन में मौजूद था। वहां बहुत अधिक तादाद में लोग इकट्ठे हुए थे। आपको ताज्जूब होगा कि बम्बई के वे तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए, जो हिंदी में किये गये थे। यह बम्बई की बात है, बनारस की नहीं, जहां सभी लोग हिंदी बोलते हैं। वे चाहते थे कि जल्द से जल्द अहिंदी-भाषी प्रातों में भी हिंदी के व्यवहार पर बल अवश्य दिया। अपनी चम्पारन-यात्रा के मौके पर 3 जून 1917 को उन्होंने एक परिपत्र जारी किया था। उसमें उन्होंने लिखा-हिंदी जल्दी से जल्दी अंग्रेजी का स्थान ले लें, यह ईश्वरी संकेत जान पड़ता है। हिंदी शिक्षित वर्गों के बीच समान माध्यम ही नहीं, बल्कि जन-साधारण के ह्दय तक पहुंचाने का द्वार बन सकती है। इस दिशा में कोई देशी भाषा इसकी बाराबरी नहीं कर सकती। गांधीजी हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद देकर और अहिंदी-भाषी प्रांतों में हिंदी प्रचार की योजनाएं बनाकर संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने 1921 में अपने अखबारो-यंग इंडिया अंग्रेजी तथा नवजीवन गुजराती के साथ-साथ हिंदी नवजीवन निकालना भी शुरू कर दिया। नवजीवन का हिंदी संस्करण आ जाना अनेक अर्थों में लाभदायी साबित हुआ। अब गांधीजी के विचारों के प्रामाणिक अनुवाद ही नहीं, वरन उनके लिखे स्वतंत्र हिंदी-लेख भी हिंदी पाठकों के लिए सुलभ हो गये थे। इसके पहले तक उनके अंग्रेजी और गुजराती लेखेंको हिंदी अनुवाद हिंदी पत्रकार किया करते थे और इस कारण वे अनुवाद उनकी अपनी भाषा और ढंग में ही हो पाते थे।
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