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Wednesday, 12 July 2017

HINDI TYPING MATTER FOR CISF

इस देश में इस्‍लामी आक्रमण होने तक भाषा,मजहब, जाति आदि का कोई विवाद नहीं था। कम से कम इनको लेकर कोई राजनीतिक संघर्ष नहीं था। इसके पहले यूनानी,, शक, कुषाण, हूण, पहलव आदि के हमले तो हुए,उन्‍होने देश के भीतर दूर तक अपने राज्‍य भी कायम किये, लेकिन उनके कारण देश में कोई मजहबी, जातीय व भाषाई संकट नहीं पैदा हुआ। यूनानी तो भारतीयों की तरह ही खुले दिमाग के थे। इसलिए उनकी राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा ने यहां और किसी तरह की हलचल नहीं पैदा की।जो अन्‍य जातियां आयी, उन्‍हें भी यहां की भाषा-लिपि रीति-रिवाज या यहां के देवी-देवताओं को लेकर कोई परेशानी नहीं थी। भाषा के मामले में देश के भीतर तथा बाहर - जहां तक यहां के व्‍यापारिक संपर्क था उच्‍च स्‍तर पर संस्‍कृत तथा निचले व आम नागरिकों के स्‍तर पर अपभ्रंश का बोलबाला था। प्राकृत भाषाएं भीअपने-अपनेक्षेत्रोंमें विद्यामान थी, लेकिन व्‍यापार के विस्‍तार और सैनिक आवागमन के कारण अपभ्रंश का पूरे देश में व्‍यापक प्रयोग हो रहा था। यह घ्‍यान देने की बात है कि अरबी, फारसी, तुर्की मिश्रित इस उत्‍तररी भाषा हिन्‍दी को दक्षिण के लोगों ने कभी दिल से स्‍वीकार नहीं किया, वास्‍तव में देश में फैली राजनीतिक व सांस्‍कृतिक अराजकता का सबसे बड़ा कुप्रभाव भाषा पर पड़ा और राष्‍ट्र की सांस्‍कृतिक एकता टूदटने के कारण भाषाई एकता भी बिखर गयी। क्षेत्रीय सांस्‍कृतिक, भाषाई,राजनीतिक व मजहबी इकाइयां बन जाने के कारण उनके बीच प्रतिस्‍पर्घा की भावना भी शुरू हो गयी। इस प्रतिस्‍पर्घा ने हर तरह की अराजकता को और बढ़ा दिया, जिसका बाद में आने वाले ईसाइयों ने भरपूर फायदा उठाय। इतिहास की इस स्थिति को समझना और उस काल के परिवेश की कल्‍पना कर पाना काफी कठिन काम है। भारत वर्ष भले ही कभी एक राजनीतिक इकाई का नाम न रहा हो और केवल एक भौगोलिक इकाई के रूप में पहचाना जाता रहा हो, लेकिन यह पूरा क्षेत्र सदैव एक सांस्‍कृतिक और आर्थिक इकाई बना रहा। इस सांस्‍कृतिक और आर्थिक एकता के कारण ही इस पूरे क्षेत्र में कितने ही राजा या रियासतें क्‍यों न रही हों, लेकिन उनके बीच शासन शैली व न्‍याय शैली की समानता थी। व्‍यापारिक व सांस्‍कृतिक संबंधों के लिए सारी सीमाएं खुली हुई थीं। इसीलिए पूरे देश में वैदिक काल से आज तक के सांस्‍कृतिक विकास क्रम का अक्षुण्‍ण प्रवाह पूरे देश में एक साथ समान रूप से देखा जा सकता है। इसीलिए क्षेत्रीय भेदों के बावजूद पूरे देश के स्‍तर पर भाषाई व लिपिगत एकता भी बनी रही। लेकिन जब बाहरी आक्रमणों से यह सांस्‍कृतिक व आर्थिक एकरूपता भंग हुई, तो बाहरी आक्रांताओं में क्षेत्रीय संकीर्णता काविकास होने लगा। दक्षिण के जो राज्‍य मुस्लिम शासन के अंग नहीं बने, उनका भी अब गंगा घाटी के इलाकों व मघ्‍य देश से कोई वास्‍ता नहीं रह गया। अब इन राज्‍यों को भी पूरे राष्‍टू से संपर्क कायम करने वाली अपभ्रंश व संस्‍कृत भाषा का कोई उपयोग नहीं रह गया। संस्‍कृत उच्‍च शिक्षित व कुलीन बर्ग में बची भी रह गयी,, लेकिन अपभ्रंश का तो लोप हो ही गया। जन सामान्‍य के लिए अब अपनी क्षेत्रीय भाषा व लिपि के अलावा अन्‍य किसी भाषा व लिपि की जरूरत नहीं रह गयी। हां, राजस्‍थान के राजपूत राजाओं ने करीब 16वीं शताब्‍दी तक अपभ्रंश को अपने राजकाज के साथ अपनी साहित्यिक रचना की भी भाषा बनाए रखा। पश्चिम भारत के जैन संगठन भी इन राजपूत राजाओं के संरक्षण में थे, इसलिए उन्‍होंने भी अपनी रचनाएं ज्‍यादातर अपभ्रंश भाषा में की, क्‍योंकि वही क्षेत्र की जनभाषा थी। लकिन इस्‍लामी आक्रमणों और उनके साम्राज्‍य विस्‍तार के कारण संस्‍कृत और दोनों का देशव्‍यापी या अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍वरूप छिन्‍न-भिन्‍न होने लगा और 13वीं शताब्‍दी के अंत तक अपभ्रंश और संस्‍कृत दोनों का अखिल भरतीय स्‍वरूप समाप्‍त हो गया। और दुर्भाग्‍य यह कि उस समय पूरे देश में बोलचाल का माध्‍यम बन सकने वाली कोई तीसरी भाषा उनका स्‍थान लेने के लिए सामने न आ सकी। कारण स्‍पष्‍ट था कि ये हमलावर अपनी लाख कोशिशों , भारी रक्‍तपात तथा शिक्षा केंद्रों व मंदिरों के ध्‍वंस के बावजूद पूरे देश पर अपना शासन कायम नहीं कर सके। उन्‍होंने पारंपरिक व्‍यवस्‍था को ध्‍वस्‍त तो किया, लेकिन वे कोई वैकल्पिक देशव्‍यापी व्‍यवस्‍थ दे नहीं सके। उत्‍तर का उनका साम्राज्‍य सीमित क्षेत्रों तक ही रहा। दक्षिण में उन्‍होंने हमले तो किये, लेकिन दक्षिण उत्‍तर को मिलाकर कोई टिकाऊ बड़ा साम्राज्‍य कायम नहीं हो सका। राजपुताना कभी पूरी तरह उनके कब्‍जे में नहीं आ पाया। गुजरात, बंगाल व महाराष्‍ट्र के क्षत्रपों ने अपनी अलग सत्‍ता कायम कर ली।

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