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Wednesday, 12 July 2017

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सेवा मनुष्‍य की स्‍वाभाविक वृत्ति है। सेवा ही उसके जीवन का आधार है। उपन्‍यास सम्राट् मुंशी प्रेमचन्‍द के इस कथन का अभिप्राय युवावस्‍था के आगमन पर समझ में आने लगता है, जब व्‍यक्ति घर गृहस्‍थी के जंजाल में उलझने लग जाताहै। वह अपनी पत्‍नी और संतान के लिए बहुत कुछ निस्‍पृह भाव से करने के लिए विवश हो जाता है-किसी बाहरी दबाव के कारण नहीं, बल्कि आन्‍तरिक प्रेरणा के कारण। प्राकृति में सेवा का नियम अव्‍याहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है। सूर्य और चन्‍द्र विश्‍व को प्रकाश एवं उष्‍णता प्रदान करते हैं, वायु जीवनदायक श्‍वास प्रदान करती है, पृथ्‍वी रहने का स्‍थान देती है, वृक्ष छाया देते हैं आदि। वे ऐसा जीवन किसी प्रतिफल-प्राप्ति की भावना से नहीं करते हैं। वे केवल अपने जन्‍मजात स्‍वभाववश ऐसा करते हैं। हम भी दीन-दु:ख्यिों की सहायता किसी आन्‍तरिक प्रेरणावश ही करते हैं। सड़क के किसी कोने में हुए घायल या बेहोशा व्‍यक्ति को उठाकर जब हमको पुरस्‍कार देगा अथवा कभी हमारे घायल अथवा बेहोशा हो जाने पर यह हमें अस्‍पताल पहुँचाएगा। यह सेवा-भाव सप्रयास किया जाता है, तब वह व्‍यक्ति का सद़गुणा एवं समाज की विभूति बन जाता है, जो लोगा सेवा-भाव रखते हैं और स्‍वार्थ सिद्धि जब कर लक्ष्‍स नहीं बनाते है, उनकी सहयोग देने वालों की कमी नहीं रहती है। गोस्‍वामी तुलसीदास के अनुसार सेवा-धर्म कठिन जग जाना अर्थात् संसार जानता है कि सेवा करना बहुत कठिन काम है। सेवा में स्‍वार्थ-त्‍याग और निरहंकारता परम आवश्‍यक है। अहंकार रहित व्‍यक्ति विश्‍व के कण-कण को अपनेसमान समझता है, उसके लिए सब आत्‍मवतद् होते है- कम-से-कम वह किसी को भी अपने से छोटा, हेय, तुच्‍छ अथवा हीन नहीं समझता है और प्र‍िणिमात्र के साथ एकत्‍व की अनुभूति करता है। वह अपने प्रत्‍येक कार्य को सर्वव्‍यापी परम प्रभु की सेवा के भाव सेकरता है। सेवा-भाव द्वारा उसको आत्‍म साक्षात्‍कार अथवा परमात्‍मा का दर्शन होता है। आत्‍म साक्षात्‍कार के संदर्भ में सेवा वस्‍तुत: साधन और साध्‍य दोनों है, अर्थात सेवा का फल सेवा द्वारा प्राप्‍त आनन्‍द के अतिरिक्‍त कुछ नहीं होता है। जिस प्रकार भक्ति का फल भक्ति ही होता है। जगत् के प्राणियों की सेवा ही जगत् को बनाने वाली की सच्‍ची सेवा-पूजा एवं भक्ति है। ईसाइयों के धर्मग्रन्‍ध इंजील में लिखा है कि यदि तुम अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं कर सकते हो, जिसको तुत नित्‍य देखते हो तो तुम उस परमात्‍मा से प्रेम कैसे कर सकोगे जिसको तुमने कभी नहीं देखा है। महात्‍मा गौतम ने अत्‍यन्‍त स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा है कि जिसे मेरी सेवा करनी है, वह पीडि़तों की सेवा करें। युगपुरुष महात्‍मा गांधी ने भी कहा कि लाखों गूँगों के हृदय में र्इश्‍वर विराजमान है मैं उसके सिवा अन्‍य किसी ईश्‍वर को नहीं मानता. मैं इस लोखों की सेवा द्वारा उस र्इश्‍वर की सेवा करता हूँ। वर्तमान समय में प्रचलित अनेक चिकित्‍सा पद्धतियों में एलोपैथी, होम्‍योपैथी, आयुर्वेद और युनानी मुख्‍य हैं। इन सब चिकित्‍सा पद्धतियों में आयुर्वेद एक लम्‍बे समय तक भारत में प्रचलित एकमात्र चिकित्‍सा प्रणाली थी। मुगलों के आगमन के साथ भारत में अरबी तथा यूनानी चिकित्‍सा पद्धतियों का प्रचलन हुआ। अंग्रेजी राज्‍य की स्‍थापना पर भारत में एलोपैथी तथा होम्‍योपैथी चिकित्‍सा पद्धतियों का भी खूब प्रचार हुआ। इनमें आयुर्वेदिक, यूनानी तथा एलोपैथिक तीनों चिकित्‍सा पद्धतियॉं मूलत: विपरीत चिकित्‍सा पद्धति सिद्धान्‍त पर आधारित हैं। अर्थात इनमें रोग को दूर करने के लिए प्राय: उन्‍ही औषधियों का सेवन किया जाता है, जो रोग के लक्षणों के विपरीत गुण-धर्म वाली हों। होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा प्रणाली में किसी रोग को दूर करने के लिए इस रोग के समान ही गुण-धर्म वाली औषधि का प्रयोग किया जाता है। अत: इसे सदृश चिकित्‍सा पद्धति कहते हैं। भारतीय आयुर्वेद ग्रान्‍थों के अनुसार विष की चिकित्‍सा विष है। इसका तात्‍पर्य है कि आयुर्वेद चिकित्‍सा सदृश चिकित्‍सा सिद्धान्‍त पर आधारित है, परन्‍तु वास्‍वविकता यह नहीं है, कयोंकि उसमें बहुत-सी औषधियॉं ऐसी हैं, जिनकी गणना सदृश चिकित्‍सा के अन्‍तर्गत की जा सकती है। आयुर्वेद पद्धति के उपचार में एलोपैथी, होम्‍योपैथी और प्राकृतिक चिकित्‍सा पद्धति के सभी सिद्धान्‍त समाविष्‍ट हैं। यह चिकित्‍सा पद्धति विशुद्ध रूप से भारतीय है, जो इसकी भूमि में ही जड़ी-बूटियों, वनस्‍पतियों एवं पशु-पक्षियों से प्राप्‍त उत्‍पादों पर आधारित है, जिनसे बनी औषधियों के अनुषंगी प्रभाव नहीं होते। होम्‍योपैथी में रोग का कोई नाम नहीं होता। इसमें शरीर में होने वाली विकृतियों के लक्षणों के आधार पर चिकित्‍सा की जाती है। अत: होम्‍योपैथी को लाक्षणिक चिकित्‍सा विज्ञान भी कहा जा सकता है।

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