गांधीजी हिंदी की राह पर लगातार आगे बढ़ते रहे, कभी पीछे नहीं लौटे। सन् 1942 में उन्होंने काका साहब कालेलकर के तत्वावधान में हिन्दुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना की। वे स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये चरखा और खादी पर जितना जोर देते थे, उतना ही हिंदी पर। यों तो हिन्द स्वराज में उन्होंने शिक्षा संबंधी अपनी धारणाएं, विचार और स्वरूप आदि सामने रखे ही थे, फिर भी हंटर कमेटी के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने तत्कालीन शिक्षा-पद्धति के दोषों की चर्चा करते हुए बताया था -आज की पाठशालाओं में कोई सच्ची नैतिक शिक्षा तो दी ही नहीं जाती। दूसरा दोष यह है कि शिक्षा अंग्रेजी भाषा द्वारा दी जाने के कारण लड़को के दिमाग पर बेहद जोर पड़ता है। परिणामत: पठशालाओं में दिये जाने वाले उंचे से उंचे विचार छात्र ग्रहण नहीं कर पाते। जाहिर है कि भारत में दी जाने वाली शिक्षा में वह हिंदी की भूमिका के सर्वाधिक महत्व को मानते थे। गांधीजी 24 वर्ष की उम्र में 1893 में अफ्रीका गये। इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर लोटे थे, इसलिए एक गुजराती व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने के लिए वे डरबन पहुंचे। दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कदम रखने वाले पहले भारतीय बैरिस्टर मोहनदास गांधी ही थे, पहले भारतीय जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त थी। गांधी शायद महीने भर वहां रुकने के लिए तैयार हुए थे, लेकिन रुक गये दो दशकों तक। उस समय वे 45 वर्ष के हो गये थे, जब वे भारत लौटे। वह 1915 का जनवरी माह था। इस उल्लेख से मेरा अभिप्राय यह है कि गांधी के भारत लौटने और भारत और भारत में गांधी युग के आरंभ की एक सदी पूरी होने में कोई तीन वर्ष ही शेष हैं, हम वस्तुत: उनसे उतने ही दूर होते गये हैं। उनके हिंदी संबंधी विचारों को हम भुला चुके हैं। सच तो यह है कि हम हिंदी से ठीक उलट व्यवहार कर रहे हैं। अंग्रेजी भारत के स्वराज्य को अपना स्थायी उपनिवेश बना चुकी है। गली-गली में अंग्रेजी सिखाई जा रहीं है। माध्यमों पर अंग्रेजी या हिंगलिश हावी है। राज-काज में भी हिंदी का दखल कम से कमतर होता गया है। हिन्दी का दुखड़ा राष्ट्रभाषा या राजभाषा के अपमान और अनादर का ऐसा कड़वा किस्सा है, जो कहीं हिंदी माह में कही हिंदी-पखवाड़े में और कहीं मात्र एक दिन के हिंदी दिवस में सिमट जाता है। क्या हम अब भी नहीं चेतेंगे। मैं समझता हूं कि समय मिलने पर उन धाराओं में संशोधन करके उनको ऐसा आदर्श बनाया जाएगा कि जिससे जो त्रुटियां आज इस विधेयक में दिखाई देती हैं वे दूर हो जायें। जिस समय यह विधेयक पहली बार सदन में आया था तो कुछ सदस्यों ने यह विचार प्रकट किया था कि गांवों में स्थिति ऐसी है कि माता-पिता अपने बच्चों को स्कूलों में नहीं भेज सकते। मुझे यह कहते हुए दु:ख होता है कि जब हमारे सैनिक नेफा और लद्दाख के बार्डर से वापस आते हैं, तो दिल्ली की शानो-शौकत, यहां के सिनेमाओं, यहां की चटक-मटक की सुन्दरियों को देख कर उनका दिल उस तरफ वापस जाने को नहीं चाहता। इस वक्त होना तो यह चाहिये था कि यहां की सब नवयुवतियों और नवयुवकों को फौजी ड्रेस पहनायी जाती, यहां के आदमियों को फौजी बना दिया जाता, ताकि हमारे सैनिकों के दिल में यह देख कर उत्साह और जोश होता कि जब दिल्ली के रहने वाले झोपड़ी में रह रहें है, तो यदि हम बर्फ में पड़े हुए तम्बुओं में रह कर इस देश के लिए लड़ रहे है, तो उसमें कोई बुराई की बात नहीं है। अगर किसानों को उत्पादन बढ़ाने केलिए और मजदूरों को काम करने के लिए कहा जाता है तो ऐसे समय में यह भी जरूरी है कि हमारे उन साथियों को भी अपना रहने का तरीका बदलने के लिए कहा जाये, जो कि बैठे -बैठे मौज करते रहते है। अगर वे खुद कुछ नहीं कर सकते है, तो सादगी से रहें। कम से कम वे ऐसा करके देश की मदद करें। उसका असर हमारे किसानों , मजदूरों और सैनिकों पर पड़ेगा। अगर हमारे पूरे देश को सैनिक बना दिया जाये और किसान और मजदूर उत्पादन को बढ़ाये, तो मैं यहां तक कह सकता हूं कि चीन ही क्या अगर संसार के सब देश मिल कर भी हमारे देश पर कब्जा करना चाहे तो भी नहीं कर सकते है।
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